बनाना चाहता था तुझे चिराग़ अपनी महफ़िल का |
रिश्ता चाहता था तुझसे, ज्यूँ आँख और दिल का ||
यूँ तो, तू कुछ भी सोचे, मेरे बारे में लेकिन,
अपनी नज़रों में तुम्हारे काबिल था |
अपने डूबने का मुझे गम न होता, मगर क्या करूँ,
इक हाथ में कश्ती, इक हाथ में साहिल था |
अच्छा नहीं इतना नाज़ भी खुद पर सनम,
मेरा सच्चा प्यार, तेरे हसन के मद्द-ए-मकाबिल था |
यूँ तो किसी की नही सुनता मैं, पर उसको सुनना पड़ा,
नसीहत में क्योंकि उसकी, तेरा नाम भी शामिल था ||
----- "अर्पण" (3 jan.1998)
मद्द-ए-मकाबिल = बराबर
रिश्ता चाहता था तुझसे, ज्यूँ आँख और दिल का ||
यूँ तो, तू कुछ भी सोचे, मेरे बारे में लेकिन,
अपनी नज़रों में तुम्हारे काबिल था |
अपने डूबने का मुझे गम न होता, मगर क्या करूँ,
इक हाथ में कश्ती, इक हाथ में साहिल था |
अच्छा नहीं इतना नाज़ भी खुद पर सनम,
मेरा सच्चा प्यार, तेरे हसन के मद्द-ए-मकाबिल था |
यूँ तो किसी की नही सुनता मैं, पर उसको सुनना पड़ा,
नसीहत में क्योंकि उसकी, तेरा नाम भी शामिल था ||
----- "अर्पण" (3 jan.1998)
मद्द-ए-मकाबिल = बराबर
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