27 मार्च 1999
सालगिरह तुम्हारी,
समझ नहीं आता अब तुम्हा क्या दूँ,
सब - कुछ तो तुम पर वार चुका हूँ,
मगर फिर भी,
तुम्हे कुछ "न जाने क्या " देना चाहता हूँ |
मुझे ख़ुद नहीं मालूम,
ये "कुछ" मैं कहाँ से लेकर आऊं,
किससे मांगू , कहाँ जाकर तलाश करूँ |
मगर तुम इंतज़ार करना,
मैं कहीं से भी लाकर तुम्हे 'कुछ' दूंगा |
वैसे,
तुम चाहो तो मेरी खुशियाँ ले लो,
जो थोड़े से सुख है वो भी ले लो,
मेरी मुस्कान, मेरी तन्हाई, मेरे गीत,
मेरे नग्में, मेरी ज़मीं, मेरा आसमां,
मेरा ख़ुदा, मेरा प्यार..........
......मेरा प्यार,
चलो, इसे तुम रहने दो,
ये शायद,
तुम्हारे काबिल नहीं था,
लेकिन इनके अलावा, तुम्हे क्या दूँ,
समझ में नहीं आ रहा,
मगर तुम इंतजार करना |
मैं तुम्हे 'कुछ' जरूर दूंगा ||
-अर्पण (27 मार्च 1999 )
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18 मार्च 1999
तुम्हारी सालगिरह,
है तो महज़ ख़ुशी का एक लम्हा,
मगर इक ज़माना,
पलों में, आँखों के सामने से गुजर जाता है |
वो बेखुद, मासूम, पशिमां, इज़्तिराब से पल,
वो कल, जो आज भी है, और शायद फिर कल |
वो लम्हे,
जो मेरे ज़हन की ज़मीं है, और आसमां भी,
मेरे पहले प्यार का यकीं हिया, राजदां भी |
जितना मैं तुम्हे चाहता हूँ,
उससे कहीं ज्यादा,
मुझे चाहते है ये लम्हे,
तुम्हारी हर सालगिरह पर,
बच्चों की तरह,
मचल जाते है ये लम्हे|
और ले जाते है मुझे,
अपने साथ,
अपनी दुनिया में,
जहाँ पर सभी मेरे अपने है,
कुछ देखे, कुछ अनदेखे सपने है|
जहाँ हवा में मेरी उम्मीदें शामिल है,
आसमां पर उल्फत-ए-महे -कामिल है|
पौधों पर फूल लगे है विश्वास के,
पेड़ों पर पत्ते उगे है मेरी आस के|
मिट्टी से आती है खुशबू तुम्हारी,
रात क्या है, परछाई है तुम्हारी,
और दिन का मतलब है, सालगिरह तुम्हारी ||
-अर्पण
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