Friday 16 November 2012

ख़ामोश ज़बाँ

ये    पन्ने    महज़    पन्ने    ही     नहीं |
मेरे   दिल    की    ख़ामोश    ज़बाँ    है ||

जो   बात    किसी    से    नही   कहता मैं,
उन   सब   राज़ो    का    ये   इफ़शां*  है |

महवियत*   से   सोचोगे    तो    पाओगे,
तहरीरे    ये     मेरी   रुदाद-ए-जहाँ*   है |

वस्ल - ओ - फुर्कत* दोनों  की  लज्ज़त,
लिए   हुए,   बेलज्ज़त  ये  कहानियां  है |

शायरी    के     बिना     ज़िन्दगी      मेरी,
फ़कत     एक     गुलशन    बयाबाँ*    है |

सादा पन्ने पर मानीखेज़* लफ्ज़ अर्पण,
फ़लक पर जैसे अंजुम-ए-रखिशंदा* है ||

                                                         -अर्पण (18 फरवरी 1998) 



* इफ़शां                   =   खुलासा
* महवियत             =   तन्मयता, संजीदगी 
* रुदाद-ए-जहाँ         =   संसार की कथा, हम सब की कहानी 
* वस्ल -ओ- फुर्कत  =   मिलन और जुदाई
* बयाबाँ                   =   बियाबान, सुनसान
* मानीखेज              =   अर्थपूर्ण
* अंजुम-ए-रखिशंदा =   चमकदार तारें 




वहशीपन


एक   पल  में  कितने  रूप  बदलते   है   लोग  यहाँ |
नक़ाब   पर   नक़ाब   ओढ़े   रहते   है   लोग   यहाँ ||

निकलता   है   प्यार   बाँटने   को   जो   भी   शख्स,
नफरत भरी मुस्कान से स्वागत करते है लोग यहाँ |

मोहब्बत इक नियामत-ए-ख़ुदा*  है, सब  कहते  है,
आशिकों  को  फिर  भी  दीवाना कहते है लोग यहाँ |

झांक  नहीं  पाए,  ठीक  से  अभी,   दिल   में   अपने,
बात  मगर, चाँद  पर  रहने  की  करते  है लोग यहाँ |

दो  सच्चे  प्रेमी  जिन्हें   गुनगुना   भी   नही   सकते,
जीस्त-ए-साज़* पर ऐसे नग्मे  गाते  है  लोग   यहाँ |

जो  वहशीपन  छुपा  है  इनके अपने  दिल में अर्पण,
वैसा   ही  अक्स   औरो  में  देखते   है   लोग    यहाँ ||

                                                       -अर्पण (14 फरवरी 1998) 


नियामत-ए-ख़ुदा = भगवान का तोहफा 
जीस्त-ए-साज़     = ज़िन्दगी का साज़ 




Thursday 15 November 2012

याद आ रहे हो -2


जुदाई में आपकी क्या-क्या सह गए है,
प्यार  कर  के,  अब  हम  थक  गए  है,
तेरी   ही   गली   में  आकर  ठहर  गई,
हवा  के  संग  हम  जब - जब  गए  है,

खुशबू  से  महका  रहे  हो |
तुम बहुत याद आ रहे हो ||

चाँद जाने क्यों आज उदास-उदास है,
हवा  में  भी आज अजीब सी प्यास है,
शब  कुछ   ज्यादा   गहरी   है   आज,
सहर आएगी, इसकी भी कहाँ आस है,

सांस  से  अटका  रहे   हो |
तुम बहुत याद आ रहे हो ||

दिल का दर्द निकला आँखों के रास्ते,
क्या - क्या  मैं  सह  गया तेरे वास्ते,
ख़वाब  में  भी  कहाँ  सोचा  था  मैंने,
मेरी डगर से अलग होंगे  तेरे  रास्ते,

रास्ते से वापिस आ रहे हो |
तुम बहुत याद  आ रहे हो ||

बुलाता हूँ किसी को,नाम तेरा निकलता है,
आईने   में    भी  तेरा  अक्स   दिखता   है,
दिल  गायब  हो जाता है, सीने से हर रोज़,
ढूंढ़ता   हूँ  तो  तेरी  गली  में  मिलता   है,

अश्क से सूखते जा रहे हो |
तुम बहुत याद आ रहे  हो ||

                                                             -अर्पण (1 जनवरी 2000)








याद आ रहे हो -1



तुम  नहीं   हो   तो   कुछ   भी   नहीं  है,
है  सब - कुछ  मगर  फिर  भी  कमी है,
तुम क्या चले गए,कोई पास नहीं आता,
मैं  किसी  से, कोई  मुझसे खुश नहीं है |

तुम  ही  आ - जा  रहे  हो |
तुम बहुत याद आ रहे हो ||

आँखें   बंद   करके  बैठा  हूँ  चुप-चाप,
कोयल भी  बहुत  चुप - चुप  है  आज,
उड़ने की कोशिश में फड़फड़ा भर पाये,
मेरी  सोच के परिंदे भूल गये परवाज़ |

तन्हाई  में  बुला  रहे   हो |
तुम बहुत याद आ रहे हो ||

जहन अज्ञात की तरफ भागा जा रहा है,
मैं  दिल  को, दिल  मुझे  समझा  रहा है,
आँखें   है  तो  पत्थर,  मगर   गीली   है,
आँसू पानी होकर भी सुखा  जा  रहा  है |

आँसू   से  धुंधला  रहे  हो |
तुम बहुत याद आ रहे हो ||

तुमसे ही रोशन थी मेरी सुबह-ओ-शाम,
इस   हिज्र   में   तेरे   प्यार  को  सलाम,
हर   दर्द ,  हर    गम    भूल   जाता   था,
आँखें बंद करके जब लेता था तेरा नाम |



रोम - रोम में समा रहे हो |
तुम बहुत याद आ रहे हो ||

                                                                  -अर्पण (28 मार्च 2000)






लौट आता हूँ मैं !



न जाने, क्या है तुझमे, बार - बार,
तुम्हारी तरफ, लौट  आता  हूँ  मैं |

कितना  ही  आपस  में झगड़ लें हम,
कितना ही एक-दूजे से रूठ जाए हम,
कितना    ही,  मैं    खा    लूँ    कसमें,
कि  एक - दूजे  से  नहीं  मिलेंगे हम,

कसमें  भूल  जाता  हूँ  मैं |
फिर  लौट  आता   हूँ   मैं ||


हर  नापसंद   बात   पर   तुम्हे   डांटना,
मेरी  हर  डांट  पर  तुम्हारे  आँसू बहना,
वो  हर  पल  दुआएँ  करना  मिलने  की,
और जब भी मिलना तो लड़ना-झगड़ना,

झगड़े  भूल  जाता  हूँ   मैं |
फिर  लौट  आता   हूँ   मैं ||


एक-दुसरे से बिल्कुल अलग है हम,
तुम  उतर  हो,  तो   मैं   दक्षिण   हूँ,
कैसे एक - दुसरे  से मिल जाएँ हम,
तुम  पूरब  हो  तो  मैं   पश्चिम   हूँ,

दिशाएं  भूल  जाता  हूँ  मैं |
फिर  लौट  आता   हूँ   मैं ||


                                      -अर्पण (31 Aug. 1999 ) 









Wednesday 14 November 2012

अभिलाषा

मेरी एक अभिलाषा है |


जो  किसी  भी  शख्स  को  नहीं बताई मैंने,
छुपाकर रखी है सबसे, दिल के तहख़ाने में,
सूरज  की  रोशनी  भी वहां तक जाती नहीं,
मेरा प्यार मसरूफ़  है उसे रास्ता दिखाने में,

निराशा  के बीच आशा है |
मेरी  एक  अभिलाषा  है ||

तन्हाई में मैं बस इसी से बातें करता हूँ,
जब ये बोलती है, चुप रह कर सुनता हूँ,
इसके  आँसू  पोंछना,  इस  को  मनाना,
 इसको खुशियाँ देना, बस यही करता हूँ,

आँखों  की  मूक  भाषा है |
मेरी  एक  अभिलाषा  है ||

ये अभिलाषा ले जाती है बादलों के उस पार,
कभी खींच लेती है, रिमझिम-2  बरसात में,
हंसती  है  जब  तो  पूरी  कायनात हंसती है,
रो  पड़ती  है  कभी - कभी  बात  ही  बात में,

दिल    की   जिज्ञासा    है | 
मेरी  एक  अभिलाषा  है ||

ये अभिलाषा, जो मेरी ज़िन्दगी का सार है,
जिसके  ग़मों  से  मुझे  बेइन्तहा  प्यार  है,
मेरी  रूह  के  सहरा  में   जो   भटकती   है,
यही  मेरी  प्यास,  यही  मेरा  आबशार*  है,

रूह      की      भाषा     है |
मेरी  एक  अभिलाषा  है ||

                                        -अर्पण (21st July 1999 )



*आबशार = मीठे पानी का झरना 





करीब

तुमने मेरी ज़िन्दगी में,
कदम क्या रखा,
मेरी सभी गमों की,
खुशियों से,
अच्छी-खासी दोस्ती हो गई है|

मेरे होश-ओ-हवास भी,
जब-तब इनकी,
बातचीत में शामिल हो जाते है,

अजीब सी हालत हो गई है,
ख़ुद अपनी ही आवाज़,
मुझे सुनाई नहीं देती,
ऐसी तन्हाई मिली है तुमसे,
जो किसी को तन्हाई भी नहीं देती,

रात-रात भर सितारों से,
तुम्हारे बारे में बातें करता हूँ,
सुबह-सुबह रश्मि भी आकर,
सबसे पहले,
तुम्हारे बारे में पूछती है,
चाँद तो पता नहीं क्यूँ,
आजकल, 
नाराज़ सा रहता है मुझसे,
शायद जलता है तुमसे,

अभी तो तुम, सिर्फ,
मेरी तरफ बढ़ रहे हो,
तो ये हालत है,
जब तुम मेरे बिल्कुल क़रीब होगी |
उस  दिन  मेरी  क्या  हालत  होगी ||

-अर्पण ( 18 july 1999)




Tuesday 13 November 2012

अनमोल घड़ी !

तुम बदल जाओगे,
तो मेरे लिए, ये दुनिया ही बदल जाएगी |

मेरी दुनिया सिर्फ,
तुम तक ही सिमित है,
इस दुनिया में तो, मैं सिर्फ,
दिखाने  के  लिए  जीता  हूँ,

मगर,
तुम्हारी दुनिया की,
बात ही अलग है,

रातें महकती है मेरी,
तुम्हारी यादों की खुशबू से,
दिन की शुरुआत,
तुम्हारा नाम लेकर करता हूँ,

एक पल भी ऐसा नहीं गुजरता,
जब मैं तुम्हे याद नहीं करता,

तुम्हारी बातें, तुम्हारी खुशबू,
तुम्हारा पागलपन, तुम्हारी हसीं,
तुम्हारे आँसू, तुम्हारी भावनाएं,
तुम्हारी लड़ाई, तुम्हारा प्यार,
ये सब-कुछ मैं कैसे भुला पाऊँगा,

चाहता हूँ मैं बस इतना,
कि तुम्हे इस दुनिया से बचा लूँ,
तुम्हे दूँ सिर्फ हँसी, सिर्फ मुस्कुराहट,
बदले में मैं, कुछ भी नहीं चाहता,

लेकिन गर दोगी, तो,
इनकार भी कैसे कर पाऊँगा,
बल्कि मुझे ख़ुशी ही होगी,
और वो घड़ी,
मेरी ज़िन्दगी की, अनमोल घड़ी होगी ||

                                                    -अर्पण (10 जून 1999)














दोस्त


मैं,  मेरी   यादें   और   यादों   में   तुम |
मैं   इनमे,  ये  मुझमे  हो  जाती  गुम ||


तुम्हारे  बोलने   से  मिलते  है   लफ्ज़,
कुछ  बोलो   क्यूँ   बैठी   हो   गुमसुम |


अच्छे लगते है, चाँद,तारे,हवाएं,बादल,
इन  सब  से  भी  मगर,  अच्छी  तुम |


बहुत  फर्क  है  तुममे  और दुनिया में,
दुनिया  का  हिस्सा न  बन जाना तुम |


हर   ख़ुशी,  हर   गम,   तेरे   दम    से,
दोस्त  हो  ये  कि  ख़ुद  खुदा  हो  तुम ||


                                                           -अर्पण (1 May 1999)






क्या रिश्ता है

जब से तुम गए हो,
कुछ भी अच्छा नहीं लगता,
अपना साया भी मुझे,
अब अपना सा नहीं लगता |

मगर हाँ,
तन्हाई से, 
इक अजीब सा,
रिश्ता बन गया है इन दिनों,

तुम्हारी सारी बातें,
तुम्हारे सारे किससे,
इनसे कहता-सुनता हूँ मैं,

ये भी अच्छे दोस्त की तरह,
मेरी सारी बातें सुनती है,
कभी-कभी तो,
सवाल भी करती है,
तुम्हारे बारे में,

इनसे बातें करना,
इनके साथ वक़्त गुजारना,
अच्छा लगता है,

कभी-कभी जी चाहता है,
इसे गले से लगा लूँ,
कि क्यूँ ये मुझे,
इतनी अच्छी लगती है,

कभी-कभी घुमने निकलता हूँ,
तो इसे भी साथ ले लेता हूँ,
लेकिन जब भी बाहर निकलता हूँ,
हर बार लोगों की आँखों में,
इक सवाल नज़र आता है,

और एक दिन यही सवाल,
लोगों की आँखों से निकलकर,
इसकी ज़बान पर आ गया - 

क्या रिश्ता है, तुम्हारा-उसका ? 

बड़े इत्मिनान से,
उसकी आँखों में आँखें डालकर,
मैंने कहा - 
                 मेरा और उसका वही रिश्ता है |
                 जो   मेरा   और   तुम्हारा    है ||

                                                -अर्पण (16 अप्रैल 1999)











अभिलाषा

मैंने  जब  देखा  तुम्हे  पहले-पहल |
कई   रंग   आँखों   में   गये  मचल ||

ख़ुद को  भुलाकर  याद  तुम्हे  रखा,
कैसे   थे   वो   लम्हे,  कैसे  थे पल |

कब  कहता  हूँ  उम्र  भर  के   लिए,
कुछ   दूर  तो   मगर   साथ   चल |

नींद की परियां पलकों पे उतरने लगी,
इक  परी  बोली - आँखें बंद कर, चल |

एक ही अभिलाषा है मेरे जीवन की |
मेरी बंद आँखों पर तुम्हारा आँचल ||

                                          -अर्पण (20 - 21 May 1999 )


ख़ुशी !

खुशियाँ ज़िन्दगी की,
किसमें है ?
        क्या है ?
           कैसे है ?,

खुशियाँ छिपी है,
त्योहारों में, मिलन में, प्यार में,
दोस्ती में, एक-दूजे के एतबार में,

ख़ुशी सपनों की, 
ख़ुशी अपनों की,

ख़ुशी पैसे की,
कभी-कभी ऐसे ही,

ख़ुशी खुशियों की,
कभी-कभी गम की भी,

ये खुशियाँ और,
कुछ ऐसी ही और खुशियाँ,
कितनी ख़ुशी देती है,
कभी-कभी तो आँसूं निकल आते है ||
                                                       -अर्पण (26 - 28 Feb 1999)


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ख़ुशी तुम वाकई खशी हो,
कितनी खुशियाँ दी है तुमने मुझे,
गम भी दिए,
तो वो भी मुस्कराकर,

कितने करीब हो तुम मेरे,
इतनी,
कि तुम्हारी सांसों की गर्मी,
को महसूस करता हूँ मैं,
फिर ठंडी सी आह भरता हूँ मैं,

ये सोचकर - कि तुम, तुम हो,
या कोई और ||

-अर्पण (28 Feb. 1999 )


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दो जून रोटी !


16 Aug 1998 

इंसान,   इंसान   को    मारता    रहा |
शैतान  खड़ा  तमाशा   देखता    रहा ||

मन्दिर - मस्जिद  को लेकर लड़ मरे,
धर्म   हर   पल   बदनाम  होता   रहा |

परिवार   के   रिश्ते   निभा   न  सका,
भगवान    से    नाता    जोड़ता    रहा |

अफवाहों  में  उड़  गया, ज्यों  तिनका,
अपने ही भाइयों का गला काटता रहा |

इंसान  मौत  से  डरता  होता था  कभी,
अब मौत को इंसाने-खौफ सताता रहा |

धर्म   के   नाम   पर   रूपये   लुटा   दिए,
बेसहारों को सहारा देने से कतराता रहा |

जिस  माँ-बाप  ने  पाला  उसको उम्र भर,
दो  जून  रोटी  वास्ते  उन्हें तरसाता रहा ||

                                                    -अर्पण

Monday 12 November 2012

उनकी ख़ुशी थी !


15 jun 1998

इंसानी  ज़िन्दगी  में  कुछ ख़्वाब ऐसे भी है |
जो   कभी   सच   न   हो,  तभी  अच्छा   है ||

प्यार  बहुत  कुछ  है आदमी  के  लिए, माना,
मगर  सब - कुछ  न   बने  तभी  अच्छा   है |

वक़्त   का   क्या   भरोसा   कब  बदल   जाये,
हाल कोई पूछे तो कहना, फ़िलहाल अच्छा है |

अपनी  खुशियों  को  लुटाकर  दोनों  हाथों  से,
दूजों के गम समेटना,  कभी-कभी  अच्छा  है |

जन्म-मरण  का  साथ  महज़  इक  ख़्वाब है,
जो  जितना  साथ  निभा  दे, उतना अच्छा है |

उनकी   ख़ुशी   थी  कि  प्यार  'अर्पण'  कर  दूँ,
फिर  नहीं  सोचा,  बुरा  है  या  कि  अच्छा  है ||
                                                                     -अर्पण 

Sunday 11 November 2012

सुबह


" सुबह "

सुबह के उजाले की पहली किरण,
मेरे दिल के अंदर तक,
उजाला भर जाती है,

आँखें खोलती हूँ,
तो उजाला, आँखों के रास्ते,
मेरे शरीर के,
कण-कण में फ़ैल जाता है,
और एक ताज़गी भरा अहसास जगाता है |

रात को,
कितने दुःख, कितनी तकलीफें,
कितने गम, कितने अँधेरे,
दामन में भरकर,
साथ ले कर सोती हूँ,

मगर सुबह उठती हूँ,
तो देखती हूँ,
कि,
सारे गम, सारे दुःख, सारी तकलीफें,
मेरे दामन से छिटक कर,
इक तरफ को पड़े,
अभी तक सो रहे है,

और सुबह के सूरज की किरणें,
एक-एक करके आती है,
और उन्हें उठाकर,
मुझसे दूर ले जाती है,
बिल्कुल मेरे एक दोस्त की तरह,

फिर सुबह के हाथों की,
गर्माहट भरी थपकी,
मैं अपने गालों पर,
महसूस करती हूँ,

जैसे कह रही हों -
हर सुबह,
ज़िन्दगी की इक नई शुरुआत है,
हम चाहें तो, ज़िन्दगी को,
कभी भी, कहीं से भी,
शुरू कर सकते है,

इस शुरुआत के लिए,
हमें बस इतना करना होगा |
ज़िन्दगी की खुशियाँ,
पाने के लिए,
पहला कदम, हमें ख़ुद उठाना होगा ||

                                          -अर्पण ( 1 May 1999 )

( ये कविता मैंने अपने एक दोस्त के कहने पर लिखी थी, उसने मुझे बताया की सुबह उसे बहुत अच्छी लगती है, एकदम ताज़गी भरे अहसास की तरह | जबकि रात को कितनी मुसीबतें, कितनी तकलीफें साथ होती है, सब कुछ सोच-सोच कर |  अपनी ज़िन्दगी के बारें में, अपने रिश्तों के बारें में सोच-सोच कर मन बहुत ख़राब होता है मगर हर सुबह इक नई उम्मीद लेकर आती है | ) 



दीवाली

भगवान करे......

तेरी सारी मुरादें, सारे सपने, सारी तमन्नाएँ |
दीवाली के दिन चल कर तुम्हारे  पास  आएँ ||

जो  भी  बीते  दिनों में तुमने खोया,
या  अनजाने   में   कहीं  छुट  गया,
सूख  गया  कोई   आँसूं   ख़ुशी  का,
या गम के आँसू की तरह बह गया |

जो भी बिछड़ा है तुमसे, वो सब मिल जाये |
दीवाली के दिन चल कर तुम्हारे पास आएँ ||

सारे ज़ख़्म तुम्हारे मुस्कराना  सीख लें,
होंठ  तेरे  हसीं  से  फिर  दोस्ती  कर लें,
अपनी  सारी  परेशानियाँ   मुझे   देकर,
मेरे हिस्से की खुशियों से झोली भर ले |

जो कुछ भी मेरा है,  सब  तुम्हें  मिल  जाए |
दीवाली के दिन चल कर तुम्हारे पास आएँ ||
  
                                                -अर्पण ( 1999 )





Saturday 10 November 2012

कुछ ग़ज़लें !


12 March 1998
आपकी याद फिर कैसा काम |
आज  की  शाम आपके नाम ||

मातम  मनाएंगे  खुशियों  का,
छलकायेंगे    ग़मों   के  जाम |

नहीं  बनी  तुम ज़मीं  के लिए,
आपका  तो  है फ़लक मक़ाम |

लाखों   का    है    दिल   मगर,
प्यार  में बिकता  बिना  दाम |

मिलन   होता   भी   तो   कैसे,
मैं ज़मीं पे, आप बलंद - बाम ||

यही तसल्ली मेरी, यही  हुसूल,
आपकी आँख के हुए हमनाम ||
                               
                                   -अर्पण 

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22 March 1998

मेरा   मुकद्दर   ही   मेरा   ना   था |
आपसे   हमें  कोई  गिला  ना  था ||

आप    मिले    तो    मालूम    हुआ,
मेरा   दिल    भी    मेरा    ना    था |

आप  छुपे  थे, हाथ  की  लकीरों  में,
आपको तलाशना हमें आया ना था |

चाहता  था  मैं,  इज़हार  करूँ,  मगर,
हाल -ए-दिल ख़त में समाया ना था |

सजदा करने चल पड़े, कु-ए-यार को,
मन्दिर  का  रास्ता  मालूम  ना  था ||

                                          -अर्पण 
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5 Aug. 1998
तुम   एक   ख़वाब   हो   माना |
फिर    भी    तुम्हे    है    पाना ||

आये   तो   हो   ख़वाब   बनकर,
ख़वाब   जैसे,   चले   न   जाना |

नींद में  आकर  सपने  जगाकर,
ताउम्र  वास्ते  सुला  ना   जाना |

हक़ीकत   का   सामना   न    हो,
जाते-जाते कुछ ऐसा कर जाना |

बेखुदी    की   हालत    में    मेरी,
ख़ुद   आकर   ख़ुदा  बन  जाना |

                                    -अर्पण 
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11 Oct. 1998
जब   कुछ   भी   नहीं   था |
सोचता  हूँ  तभी  सही  था ||

था  उसके  पास सब - कुछ,
फ़कत   वो   ही   नहीं    था |

होसलां आँखों में लेकर चला,
आसमां,        ज़मीं        था |

मुद्दत बाद याद् आयी उनकी,
माने,    वो    गया   नहीं  था |

देखा    था    मैंने    चाँद   को,
कैसे  कह  दूँ,  तू    नहीं   था |

अब समेटने से क्या फायदा,
जब   मैं  टुटा,  तू  वहीँ   था ||

                               -अर्पण 
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1 Nov. 1998
वो  सुबह  का  तारा  है |
कहाँ  नसीब हमारा  है ||

चमकता  है  अंधेरों   में,
उजालों   का   मारा   है |

झील    में    अकेला   है,
शायद  मेरा  शिकारा है |

प्यार में यही लगता रहा,
बस कुछ दूर किनारा है |

दिल   से   निकले  लफ्ज़,
नदिया    की    धारा    है |

जुदाई में थी, उनकी ख़ुशी,
जीतकर  "अर्पण" हारा है ||

                               -अर्पण 







कुछ ग़ज़लें !


28 June 1999
ईक  धुंधली  सी  तस्वीर  यादों  में,
और  नुमायाँ  हो  गई  बरसातों  में |

जिसे  कभी  ज़ी  भर  के  नहीं देखा,
सिर्फ महसूस किया, उसे आँखों में |

दिन  भर  दिल  के  आसपास  रही,
दिल   में   उतर    गई    रातों   में ||

                                        -अर्पण  ----------


21 July 1999
तू   मेरी   तक़दीर   है,
रांझे     की    हीर    है |

मेरी  आँख  से बह रहा,
तेरी  आंख का  नीर है |

लगती  है  मीठी-मीठी,
प्यार  की कैसी पीर है |

बिना प्यार जो जी रहा,
सबसे  बड़ा  फ़कीर  है |

कर   रही    है    बातें |
तू   है  कि तस्वीर  है ||

                      -अर्पण 
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17 Sep. 99 -20 Feb.2000

नमाज़    पाँच    वक़्त |
इश्क      हर     वक़्त ||

तू       एक       लम्हा,

तेरी   याद   हर  वक़्त |

चाहते        हो      जीना,

मरना      हर      वक़्त |

इश्क़        इक       बार,

बेखुदी       हर     वक़्त |

सुबह,     दोपहर,   शाम,

तू         हर         वक़्त |

मेरी     हर    अभिलाषा,

तुझपे  अर्पण हर वक़्त ||

                        -अर्पण  ----------


24 Dec. 2000
रिश्तों    को    आजमाना |
मतलब  तकलीफें  पाना ||

प्यार        और      दोस्ती,

अजीब   सा  ताना - बाना |

वस्ल    मेरा   और  उनका,

है   एक    ख़्वाब    सुहाना |

भगवान    भी    होता    है,

प्यार   किया   तब   जाना |

हंस  के  गुजार हर   लम्हा,

ज़िन्दगी का क्या ठिकाना ||

                              -अर्पण  ----------


25 Nov. 1999
दुनिया  का  सबसे  बड़ा गम |
अपने  प्यार  का टूटता दम ||

मानते रहे मोहब्बत को खुदा,

बड़ी   गफ़लत   में   रहे   हम |

पैसा,  रुतबा   ही  सब - कुछ,

सामने  इनके  प्यार  है  कम |

झूठी - बनावटी  शान  में  रहे,

प्या  को  तौला  हमे  शा कम |

प्यार  का  अपने हश्र जो देखा,

हो  गई  पत्थर  आँख भी नम |

ठुकरा   कर   सादे  प्यार  को,

तरसोगे  तुम  जन्म - जन्म ||

                                   -अर्पण  ----------

4 Feb. 2000
यह    कैसी    मजबूरी   है |
पास   होकर   भी   दुरी  है ||

वस्ल - फ़राक  दोनों  बेसब्र,
इश्क़    दोधारी    छुरी    है |

एहसान   चार    कंधों    का,
आखिर  सबकी  मजबूरी है |

अदम   से   दहर   के   बीच,
पलक  झपकने की दूरी  है |

नाम तेरा लिखे बिना अर्पण,
तहरीर    मेरी    अधूरी    है ||
                     
                               -अर्पण  ----------
       

11 March 1999
तुम    कुछ   मत  बोलो |
सिर्फ   बंद   होंठ  खोलो ||

ख़ामोशी    से   करो  बातें,

लफ्जों  को   मत   तोलो |

मैं     हूँ    बेघर,    बंजारा,

दिल   के  दरवाज़े  खोलो |

आत्मा  दे  देना  बदले  में,

दिल    किसी  से  जो  लो |

पढ़  लूँ   तक़दीर   अपनी,

बंद     मुट्ठी   ज़रा   खोलो |

ज़िन्दगी ने जगाया  बहुत,

मौत कहती है अब सो लो ||

                                          -अर्पण 



रात के अँधेरे !

आज रात को अचानक मेरी नींद खुल गई और नींद खुलते ही जो आवाज़ सबसे पहले मेरे कानों को छुकर निकली वो थी रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ | ये आवाज़ मेरे कानों के इतने नजदीक महसूस हुई जैसे की रेलगाड़ी मेरे घर के बिल्कुल पीछे से जा रही है | और फिर मुझे महसूस हुआ कि जैसे मैं रेलवे स्टेशन की पथरीली ज़मीन पर काली चादर ओढ़ कर सो रहा हूँ |
इतनी दूर की आवाज़ को मेरे पास लाने वाले ज़रिये थे - " रात के अन्धेरें "

रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

चुपचाप, शांत, टकटकी बांधे,
सुबह का इंतजार करते रहते है |

कितना प्यार करते है, 
ये सुबह को,
मगर तब भी,
कितनी सदियाँ गुजर गई,
कायनात,
कई बार उजड़ कर बस गई,
कितने ही मौसम आये,
और चले गए,
मगर इनका मिलन....................

इतना प्यार है इनमे,
शायद इसीलिए ये मिल कर भीं मिल नहीं पाये ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

मगर मुझे तो हर रात,
नित नए फ़साने सुनाते है |

जिनसे मिलना, हक़ीकत में,
            कभी मुमकिन न हुआ,
उनसे मिलन के वसीले बन जाते है ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

अपनी ही दुनिया में खोये रहते है,
और सचमुच,
इनकी दुनिया है भी कितनी प्यारी,

चाँद-तारे हमसफ़र है इनके,
सारी रात आपस में,
जाने क्या-क्या,
बातें करते रहते है ,
मैंने कई बार कान लगाकर,
सुनने की कोशिश की,
मगर,
कुछ एक बातों के अलावा,
कुछ भी समझ नहीं आया,

ये आते है,
तो, इनके पीछे-पीछे,
सहर भी चली आती है |
गर ये अँधेरे न होते,
तो शायद हमें,
कभी सुबह भी नसीब नहीं होती ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये काली स्याह तन्हाईयों के सिलसिले है,
ऐसे है,
जैसे की अनगिनत काली चादरें,
एक-के-बाद-एक खुलती चली जाती है|

लेकिन सच कहूँ,
मैं ये नहीं मानता,
मेरे लिए तो हर रात ये,
कहीं-न-कहीं से,
रौशनी की किरण ले आते है|
और उस रोशनी के उजाले में,
मैं अपनी ज़िन्दगी के अँधेरे टटोलता हूँ |

काली स्याह चादरों की,
न ख़त्म होने वाली दीवारों के बीच,
कोई दरार तलाशता हूँ,
जिसमे से गुजर कर,
मैं अपनी ज़िन्दगी की सुबह को पा सकूँ |
जाने ये सुबह कब मिलेगी ?

मगर,
मैं हारूँगा नहीं,
इसे तलाशता रहूँगा,
और फिर इस तलाश में,
मैं अकेला भी तो नहीं,
मेरे साथ है, साथी मेरे,
रात के अन्धेरें !

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रात के अँधेरे,
जब आते है,
दिल पर छा जाते है, कुछ गुनगुनाते है,
धुन नई बनाते है, फिर मुझे सुनाते है,
तभी अचानक,
सुनाते-सुनाते चुप हो जाते है,
जाने कहाँ खो जाते है,

मैं पूछता हूँ,
"कहाँ खो गए "
बोले-
हम कहाँ खो सकते है,
दुनिया के उजाले, अंधेरों में खोते है,
मगर हम अँधेरे खोने के लिए कहाँ जाएँ |
  
मैंने कहा - 
खो जाने के लिए,
फ़कत एक याद चाहिए |
अपने दिल में,
       उजाले की इक याद बसा लो |
काम है तो मुश्किल,
मगर मेरी मानो, ये भी कर डालो ||
  
                                       -अर्पण
                              (23 Nov. to 2 Dec. 1998 )