Saturday 10 November 2012

रात के अँधेरे !

आज रात को अचानक मेरी नींद खुल गई और नींद खुलते ही जो आवाज़ सबसे पहले मेरे कानों को छुकर निकली वो थी रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ | ये आवाज़ मेरे कानों के इतने नजदीक महसूस हुई जैसे की रेलगाड़ी मेरे घर के बिल्कुल पीछे से जा रही है | और फिर मुझे महसूस हुआ कि जैसे मैं रेलवे स्टेशन की पथरीली ज़मीन पर काली चादर ओढ़ कर सो रहा हूँ |
इतनी दूर की आवाज़ को मेरे पास लाने वाले ज़रिये थे - " रात के अन्धेरें "

रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

चुपचाप, शांत, टकटकी बांधे,
सुबह का इंतजार करते रहते है |

कितना प्यार करते है, 
ये सुबह को,
मगर तब भी,
कितनी सदियाँ गुजर गई,
कायनात,
कई बार उजड़ कर बस गई,
कितने ही मौसम आये,
और चले गए,
मगर इनका मिलन....................

इतना प्यार है इनमे,
शायद इसीलिए ये मिल कर भीं मिल नहीं पाये ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

मगर मुझे तो हर रात,
नित नए फ़साने सुनाते है |

जिनसे मिलना, हक़ीकत में,
            कभी मुमकिन न हुआ,
उनसे मिलन के वसीले बन जाते है ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

अपनी ही दुनिया में खोये रहते है,
और सचमुच,
इनकी दुनिया है भी कितनी प्यारी,

चाँद-तारे हमसफ़र है इनके,
सारी रात आपस में,
जाने क्या-क्या,
बातें करते रहते है ,
मैंने कई बार कान लगाकर,
सुनने की कोशिश की,
मगर,
कुछ एक बातों के अलावा,
कुछ भी समझ नहीं आया,

ये आते है,
तो, इनके पीछे-पीछे,
सहर भी चली आती है |
गर ये अँधेरे न होते,
तो शायद हमें,
कभी सुबह भी नसीब नहीं होती ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये काली स्याह तन्हाईयों के सिलसिले है,
ऐसे है,
जैसे की अनगिनत काली चादरें,
एक-के-बाद-एक खुलती चली जाती है|

लेकिन सच कहूँ,
मैं ये नहीं मानता,
मेरे लिए तो हर रात ये,
कहीं-न-कहीं से,
रौशनी की किरण ले आते है|
और उस रोशनी के उजाले में,
मैं अपनी ज़िन्दगी के अँधेरे टटोलता हूँ |

काली स्याह चादरों की,
न ख़त्म होने वाली दीवारों के बीच,
कोई दरार तलाशता हूँ,
जिसमे से गुजर कर,
मैं अपनी ज़िन्दगी की सुबह को पा सकूँ |
जाने ये सुबह कब मिलेगी ?

मगर,
मैं हारूँगा नहीं,
इसे तलाशता रहूँगा,
और फिर इस तलाश में,
मैं अकेला भी तो नहीं,
मेरे साथ है, साथी मेरे,
रात के अन्धेरें !

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रात के अँधेरे,
जब आते है,
दिल पर छा जाते है, कुछ गुनगुनाते है,
धुन नई बनाते है, फिर मुझे सुनाते है,
तभी अचानक,
सुनाते-सुनाते चुप हो जाते है,
जाने कहाँ खो जाते है,

मैं पूछता हूँ,
"कहाँ खो गए "
बोले-
हम कहाँ खो सकते है,
दुनिया के उजाले, अंधेरों में खोते है,
मगर हम अँधेरे खोने के लिए कहाँ जाएँ |
  
मैंने कहा - 
खो जाने के लिए,
फ़कत एक याद चाहिए |
अपने दिल में,
       उजाले की इक याद बसा लो |
काम है तो मुश्किल,
मगर मेरी मानो, ये भी कर डालो ||
  
                                       -अर्पण
                              (23 Nov. to 2 Dec. 1998 )






































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