ये पन्ने महज़ पन्ने ही नहीं |
मेरे दिल की ख़ामोश ज़बाँ है ||
जो बात किसी से नही कहता मैं,
उन सब राज़ो का ये इफ़शां* है |
महवियत* से सोचोगे तो पाओगे,
तहरीरे ये मेरी रुदाद-ए-जहाँ* है |
वस्ल - ओ - फुर्कत* दोनों की लज्ज़त,
लिए हुए, बेलज्ज़त ये कहानियां है |
शायरी के बिना ज़िन्दगी मेरी,
फ़कत एक गुलशन बयाबाँ* है |
सादा पन्ने पर मानीखेज़* लफ्ज़ अर्पण,
फ़लक पर जैसे अंजुम-ए-रखिशंदा* है ||
-अर्पण (18 फरवरी 1998)
* इफ़शां = खुलासा
* महवियत = तन्मयता, संजीदगी
* रुदाद-ए-जहाँ = संसार की कथा, हम सब की कहानी
* वस्ल -ओ- फुर्कत = मिलन और जुदाई
* बयाबाँ = बियाबान, सुनसान
* मानीखेज = अर्थपूर्ण
* अंजुम-ए-रखिशंदा = चमकदार तारें