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" साया "

ये कौन मेरे दिल की तरफ आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ा रहा है, चाल तो कुछ जानी -पहचानी सी लग रही है |

"सुनिए," सुनिए ज़रा, जी हाँ - आप |

अररेSSSSS, चेहरा भी कुछ अपना-अपना सा लग रहा है मगर फिर भी जानें क्यों अजनबी सी ..........

"कहिये," आप इस रास्ते पर कैसे?

जवाब ख़ामोशी में मिला |

ये आपकी रहगुजर तो नहीं, आपको इस राह का पता बताया किसने? आप कुछ बोलती क्यूँ नहीं |

वो फिर भी ख़ामोश, बंद सीप की मानिंद खड़ी रही | फिर मेरी आँखों में आँखें डालकर कुछ बोलने को हुई मगर बंद सीप खुलते-खुलते रह गयी| उसने मुझे देखते-देखते आँखें बंद की और चेहरा नीचे करके फिर उसी तरफ चल पड़ी | मुझे लगा की अगर ये सीप खुल जाती तो न जाने कितने राज़ के मोती इनमे से गिरते जो मेरी पहचान में आकर भी पहचाने नहीं जा रहे थे|

वो जा रही थी उसी राह पर मगर इस बार उसके क़दमों के बीच का फासला बढ़ गया था | मैंने चाह कि उसका रास्ता रोक लूँ और पूछूँ की इस रास्ते का पता उसे किसने बताया क्योंकि इस राह पर तो "उसके" सिवा कोई और नहीं चल सकता मगर मेरा हाथ उठा का उठा रह गया और आवाज़ भी ख़ामोशी के तहख़ाने में ना जाने कहाँ खो गयी |

वो तो चली गई पर अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई - सवाल जो बार-बार मुझे बिच्छु की तरह डंक मरने लगे और मैं इतने डंक खाने के बाद भी इसी कोशिश में था कि इनसे बच जाऊँ, मगर ये तो मुमकिन नहीं |

"आखिर वो कौन थी?", "क्यों वो इस राह पर से गुजरी?", "क्यों मैं चाहकर भी उसे रोक न सका", "क्यों उसका चेहरा मुझे अपना-अपना सा लग रहा था", "क्यों उसकी आँखों में भी वही सूरज का टुकड़ा था जो अलग से अपने वजूद का अहसास कराता है", "क्यों वो बोलते-बोलते अचानक रुक गयी", "क्यों मुझे लगा की जो लफ्ज़ उसकी ज़बाँ से निकलेगें वो अपने से होंगे." ये सवाल और ऐसे ही कई और सवाल लगातार मुझे डंसते रहे| जब ये डंक असहनीय हो गए तो इनकी दवा करने के लिए मैं उसके पीछे लपका |

दिल के शीशमहल के आँगन में जैसे ही क़दम रखा, लगा कि वक़्त कहीं शुन्य में खो गया है| साँसे भी रह-रह कर लम्बी-लम्बी सांसें लेती महसूस हुई| आँखों के सामने ऐसा मंज़र था जिसे देखकर भी आँखें देखने से साफ़ इन्कार कर रही थी| मगर सच तो सच था, सामने वो खड़ी थी जिसका मैं मुद्दत से मुन्तजिर था | सफ़ेद लिबास में, मेरी ही तरफ देखती हुई |

मेरा दिल चाहा कि भागकर उसका इस्तकबाल करूँ, उसके सदके में सज़दा करूँ मगर होश थे कि वापिस आने का नाम ही नहीं ले रहे थे| और शायद मेरी ये हालत उससे छुपी न रह सकी | वो धीरे-धीरे आगे बढ़ी और मुझे छुआ | मेरा वजूद झनझना कर रह गया, सारे शरीर में अफरा-तफरी मच गई | होश-हवाश, आँखें, साँसें सभी आनन् फानन में इकट्ठे होने लगे | और जब वो कुछ देखने, समझने, सोचने के लायक हुए तो उसे अपने बहुत क़रीब खड़े पाया | और शायद ये मेरी ज़िन्दगी का सबसे हसीन लम्हा था जब उसने मुझसे पूछा - "कैसे हो?"

मैं कहना चाहता था कि बिल्कुल अच्छा नहीं हूँ, मगर मेरी इस सोच को रोंदकर एक आवाज़ जाने मेरे अन्दर कहाँ से निकली - "पहले से अच्छा हूँ" |

"तुम अब भी मेरा इंतज़ार कर रहे हो", उसने पूछा |

मुझसे कुछ कहते न बन पड़ा, मैंने नज़रें झुका ली | उसने फिर पूछा - " तुम्हे यकीन था कि मैं वापिस आऊँगी" |
नज़रें उठाकर मैंने उसकी आँखों में देखा, कुछ कहना चाहा मगर होठों को जुम्बिश भर दे कर रह गया | लेकिन शायद उसने मेरी ख़ामोशी पढ़ ली थी |

उसकी आँखों में आँसू के कुछ कतरे मचले और फिर लफ्ज़ बनकर उसकी ज़बान पर आ गए - "इतना प्यार", इतना प्यार छुपा रखा था सीने में और मुझे कभी बताया भी नहीं, कभी मुझे ये दौलत दिखाते तो सही | और मैं भी कितनी पागल थी, दुनिया की ये सबसे कीमती दौलत छोड़कर जा रही थी | मगर ये शायद तुम्हारा प्यार ही था जो मुझे वापिस लौटा लाया | मैं भी कुछ दिनों से सोच रही थी कि ये कैसी कशिश है जो मुझे अपनी तरफ खिंच रही है | न जाने कैसे मेरे क़दम इस तरफ को ख़ुद -ब-ख़ुद चल पड़े | रस्ता भर मैं इसी कशमकश में थी कि  मेरे क़दम मुझे कहाँ ले जा रहे है |

और हाँ, इस तरफ आते वक़्त मेरे साथ एक अजीब हादसा हुआ, जब मैं आ रही थी तो चलते-चलते अचानक मुझे महसूस हुआ कि कुछ ऐसा है जो पीछे कहीं छुट गया है मगर कुछ नज़र नहीं आया| यहाँ पर आकर जब तुम्हारे प्यार की रोशनी मुझ पर पड़ी तो मैंने देखा की मेरा "साया" मेरे साथ नहीं था |

"मुझे मेरा साया ला दो अर्पण" |

ये बात सुनकर मुझे अचानक उसका ख़याल आया जो अभी-अभी मुझे बाहर मिली थी | हाँ, तभी तो मुझे उसकी  चाल जानी-पहचानी लग रही थी और चेहरे में भी कितना अपनापन था | और ख़ामोशी तो बिल्कुल तुम्हारे जैसी थी और.............| लेकिन नहीं, वो साया नहीं थी, वो तो एक वजूद था|

मुझे सोच के भंवर में फंसा देखकर उसने पूछा - "कहाँ खो गए" |

मैंने उसे सब कुछ बताया | सुनकर वो बोली - हाँ वही मेरा साया होगा, मुझसे बिछुड़कर अकेले में वो डर गया होगा | इसलिए उसने किसी वजूद की पनाह ले ली होगी मुझे मेरा साया ला दो, प्लीज़ |  

मैंने कहा - लेकिन मुझे अब किसी की जरुरत नहीं, तुम मेरे पास हो, मेरे क़रीब हो तो मुझे और कुछ नहीं चाहिए |

"नहीं अर्पण, तुम भूल रहे हो", सिर्फ यादों के सहारे ज़िन्दगी नहीं कटती | ठीक है, दिल में मुझे प्यार करते रहो मगर ज़िन्दगी की राहों में तुम्हे एक साथी ऐसा चाहिए जो साया बनकर नहीं, एक वजूद बनकर हर पल तुम्हारे साथ रहे, जो तुम्हारे आँसूं पोंछ सके, क्योंकि मैं तो हमेशा से तुम्हे बस रुलाती ही आयी हूँ |

नहीं-नहीं, ऐसी बात नहीं है, कभी-कभी तो मैं तुम्हारे बारे में सोचकर बहुत ज्यादा खुश हो जाता हूँ |

"हाँ, इतने खुश की आँखों में से आँसूं निकल आते है, है न ? |

मैं चुप रहा, बात सच थी |

आँसूं तो तुम्हारे दोनों ही सूरतों में निकलते है और मैं नहीं चाहती कि ये बेकार जाएँ | एक दामन तुम्हे ऐसा चाहिए जो इन बेघर आँसुओं को पनाह दे सके | बोलो ऐसा करोगे न?

"मुझे तुम्हारे सिवा कोई और दामन नहीं चाहिए" |

तुम फिर भूल रहे हो, मैं चाह कर भी तुम्हारे आंसूं नहीं पोंछ सकती | मैं महज़ एक याद हूँ, एक अहसास हूँ जो सिर्फ महसूस की जा सकती है | और इसके बाद तुम कोई भी तकरार नहीं करोगे | तुम्हे मेरा वास्ता, मेरे प्यार का वास्ता, जाकर उसे ढूंढ लाओ |

इतनी बड़ी कसम ! मैं कैसे तोड़ सकता था | मैं चलने लगा मगर रुका और उससे पूछा - मगर इतनी बड़ी दुनिया में मैं उसे पहचानूँगा कैसे ?

"तुम्हे उसमे मेरा अक्स नज़र आएगा", और वो तुम्हे कहीं अपने आसपास ही मिल जाएगी ऐसे जैसे की तुम्हे बहुत पहले से जानती है | जाओ अर्पण ! मेरी दुआएँ तुम्हारे साथ है |

"और मैं उसे ढूंढने निकल पड़ा" |


- अर्पण  (wrote this story between 25 Jan. to 25 Aug. 1999)


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