Tuesday 28 May 2013

- तेरा नाम

बनाना चाहता था तुझे चिराग़ अपनी महफ़िल का |
रिश्ता  चाहता  था  तुझसे, ज्यूँ आँख और दिल का ||

यूँ  तो, तू  कुछ   भी   सोचे, मेरे   बारे   में   लेकिन,
अपनी     नज़रों     में     तुम्हारे     काबिल      था |

अपने डूबने का मुझे गम न होता, मगर क्या करूँ,
इक   हाथ   में   कश्ती,  इक  हाथ  में  साहिल  था |

अच्छा   नहीं   इतना   नाज़   भी   खुद   पर   सनम,
मेरा सच्चा प्यार, तेरे हसन के मद्द-ए-मकाबिल था |

यूँ तो किसी की नही सुनता मैं, पर उसको सुनना पड़ा,
नसीहत  में क्योंकि उसकी, तेरा नाम भी शामिल था ||

                                                      ----- "अर्पण" (3 jan.1998)



मद्द-ए-मकाबिल = बराबर




- नक़ाब

इक  पल  में  कितने  रूप  बदलते  है  लोग  यहाँ |
नक़ाब   पर   नक़ाब   ओढे   रहते  है  लोग  यहाँ ||

निकलता   है   प्यार   बाटनें   को   जो   भी   शख्स ,
नफ़रत भरी मुस्कान से स्वागत करते है लोग यहाँ |

मोहब्बत इक नियामत -ए - ख़ुदा  है, सब कहते है,
आशिकों  को  फिर  भी  दीवाना कहते है लोग यहाँ |

झांक  नही  पाए, अभी  ठीक  से, दिल  में  अपने,
चाँद  पर  रहने  की  बात  मगर करते है लोग यहाँ |

दो  सच्चे  प्रेमी  जिन्हें  गुनगुना  भी  नही  सकते,
जीस्त-ए-साज़ पर ऐसे नगमें गाते  है  लोग यहाँ |

जो  वहशीपन छुपा है इनके अपने दिल में अर्पण,
वैसा   ही   अक्स   ओरों   में   देखते   है लोग यहाँ |

                                               ----- "अर्पण" (3 jan. 1998)





Wednesday 22 May 2013

- इश्क़ में गिरफ्तार

कल्पनाओ के फूल जब खिलने लगे,
घने वीराने में भी जब,
   कोई खूबसूरत मंजर नज़र आने लगे,
हवाओं में जब उँगलियों से,
     तस्वीर बनाने को जी चाहे,
तन्हा तनहाइयों में जब, आस-पास,
    जाना-अनजाना, साया महसूस हो,
ज़बां से निकले लफ्ज़ जब,
    शक्ल, ग़ज़ल की अख्तियार करने लगे,
गर्मी की ठंडी-ठंडी पुरवाई, जब,
    कोई धुन गुनगुनाती सी लगे,
गम भी जब,
    मीठा-मीठा दर्द जगाने लगे,
अकेलेपन से जब,
    गले मिलना चाहो,
दोस्तों के बीच रहते हुए भी,
     जब, बेख़ुद, तन्हा से रहने लगो,
हर प्यार करने वाला शख्स,
    जब, अपना अज़ीज़ लगने लगे,
इक मखसूस नाम सुनकर,
  जब, 
    होश हवा में परवाज़ करने लगे,
ख़ामोशी से जब तुम, 
    बहुत सी बातें करने लगो,
किसी के गम, अपनी खुशियों से भी,
                       प्यारे जब लगन्रे लगे,
तब,
समझो कि ज़माने की नज़र में,
                         तुम बेकार हो गये,
और किसी के इश्क़ में गिरफ्तार हो गये,
फिर,
प्यार या ज़िन्दगी,
  किसी एक को अलविदा कह देना,
और गर,
    टूटना न चाहो, 
         तो शायरी से दिल लगा लेना ||

                                 ---- "अर्पण" (6 jan. 1998)



- अर्पण

आसान सा रास्ता है बदनाम होने का यारों |
ज्यादा  कुछ  नही फ़कत मोहब्बत कर लो ||

मोहब्बत तो आखिर मोहब्बत ही है,
बावफा न सही, बेवफा ही से दिल लगा लो |

भूल जाओ जब सजदा करना मस्जिद में,
यार का नाम,लिख के हाथ पे,माथे से लगा लो |

इज़्तिराब जब बढने लगे हद से ज्यादा,
हाथ दिल पे रख के, कोई ग़ज़ल लिख डालो |

विश्वास हमेशा अर्पण में रखना,हुसूल में नही,
सच्चा प्यार गर किया है, तो निभाना भी जान लो|

                                                           --- "अर्पण" (8 jan. 1998)


इज़्तिराब =  व्याकुलता
हुसूल      =  इश्क़ का हासिल 

Tuesday 21 May 2013

- पागल बादल

जाने   क्यों   आज   रो   रहा   है  बादल |
शायद किसी को याद कर रहा है बादल ||

हर   गिरती  बूँद  में  इक  आह  छुपी  है,
महसूस  कर  रहा  है  मेरा  दिल  पागल |

रूदन   रक्स  करती  ठहरे  हुए  पानी  में,
कर   रही  है  बूँदें  मेरे  दिल  को   घायल |

कोई     अंगार     पर,   कोई    खार    पर,
हर बूँद को नही मिलता धरती का आँचल |

तेरे   प्यार   को, तेरे  प्यार   की   कद्र   है,
तू,  फिर  क्यों  रो  रहा  है  पागल  बादल ||

                                      --- "अर्पण" (13 jan. 2000)





- आँख का पानी

किस   कदर  अजीब  रिश्ता  है  ये |
कभी   हँसता  कभी  रिसता  है  ये ||

अपनी   ही   अन्दर   छुपा  लूँ  कहीं,
आँखों    को    यूँ    भींचता    है    ये |

गम   और   ख़ुशी   का  लेकर  पानी,
मेरी ज़िन्दगी का पौधा सींचता है ये |
  
फैलता  है  कभी, कभी  सिकुड़ता है,
रबड़  जैसे  दिल  को  खींचता  है ये |

जिस रोज़ तुमसे मिलना नहीं होता,
रुई  जैसे  ख़्वाबों  को  पींजता है ये |

अपनी आँख का पानी करके अर्पण,
मेरी  अभिलाषा  को  सींचता  है  ये |

                                    ----"अर्पण' (19 jan. 2000)





Monday 20 May 2013

- शिकायत

तुम्हे शिकायत है मुझसे,
     कि मैं बहुत कम बोलता हूँ,

मगर क्या कभी तुमने देखा है,
उस रोशनी को, जो मेरी आँखों में होती है,
                             जब मैं सुनता हूँ  तुम्हे |

कभी देखा है उस मुस्कराहट को,
      जो मेरे होंठों पर आती है,
                  जब हँसती हो तुम |

कभी देखा है उन लगज़िशो को,
            मेरी नीची निगाहों को,
       जब तुम साथ होती हो मेरे |


तुम्हे शिकायत है मुझसे,
     कि मैं बहुत कम बोलता हूँ.....

.....मगर,
          मुझे शिकायत है तुमसे,
       कि तुमने कभी सुना ही नहीं,
उस ख़ामोशी को, 
      जो कई बार मेरे लबों पर आई,
        जो कई बार मेरी आँखों में आई,
वो ख़ामोशी,
       जो कई बार हमारे दरम्यान आई,
                तुमने इसे कभी सुना ही नहीं,

मुझे शिकायत है तुमसे.......

                                          --- "अर्पण" (22 jan. 2001)