Saturday 10 November 2012

कुछ ग़ज़लें !


12 March 1998
आपकी याद फिर कैसा काम |
आज  की  शाम आपके नाम ||

मातम  मनाएंगे  खुशियों  का,
छलकायेंगे    ग़मों   के  जाम |

नहीं  बनी  तुम ज़मीं  के लिए,
आपका  तो  है फ़लक मक़ाम |

लाखों   का    है    दिल   मगर,
प्यार  में बिकता  बिना  दाम |

मिलन   होता   भी   तो   कैसे,
मैं ज़मीं पे, आप बलंद - बाम ||

यही तसल्ली मेरी, यही  हुसूल,
आपकी आँख के हुए हमनाम ||
                               
                                   -अर्पण 

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22 March 1998

मेरा   मुकद्दर   ही   मेरा   ना   था |
आपसे   हमें  कोई  गिला  ना  था ||

आप    मिले    तो    मालूम    हुआ,
मेरा   दिल    भी    मेरा    ना    था |

आप  छुपे  थे, हाथ  की  लकीरों  में,
आपको तलाशना हमें आया ना था |

चाहता  था  मैं,  इज़हार  करूँ,  मगर,
हाल -ए-दिल ख़त में समाया ना था |

सजदा करने चल पड़े, कु-ए-यार को,
मन्दिर  का  रास्ता  मालूम  ना  था ||

                                          -अर्पण 
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5 Aug. 1998
तुम   एक   ख़वाब   हो   माना |
फिर    भी    तुम्हे    है    पाना ||

आये   तो   हो   ख़वाब   बनकर,
ख़वाब   जैसे,   चले   न   जाना |

नींद में  आकर  सपने  जगाकर,
ताउम्र  वास्ते  सुला  ना   जाना |

हक़ीकत   का   सामना   न    हो,
जाते-जाते कुछ ऐसा कर जाना |

बेखुदी    की   हालत    में    मेरी,
ख़ुद   आकर   ख़ुदा  बन  जाना |

                                    -अर्पण 
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11 Oct. 1998
जब   कुछ   भी   नहीं   था |
सोचता  हूँ  तभी  सही  था ||

था  उसके  पास सब - कुछ,
फ़कत   वो   ही   नहीं    था |

होसलां आँखों में लेकर चला,
आसमां,        ज़मीं        था |

मुद्दत बाद याद् आयी उनकी,
माने,    वो    गया   नहीं  था |

देखा    था    मैंने    चाँद   को,
कैसे  कह  दूँ,  तू    नहीं   था |

अब समेटने से क्या फायदा,
जब   मैं  टुटा,  तू  वहीँ   था ||

                               -अर्पण 
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1 Nov. 1998
वो  सुबह  का  तारा  है |
कहाँ  नसीब हमारा  है ||

चमकता  है  अंधेरों   में,
उजालों   का   मारा   है |

झील    में    अकेला   है,
शायद  मेरा  शिकारा है |

प्यार में यही लगता रहा,
बस कुछ दूर किनारा है |

दिल   से   निकले  लफ्ज़,
नदिया    की    धारा    है |

जुदाई में थी, उनकी ख़ुशी,
जीतकर  "अर्पण" हारा है ||

                               -अर्पण 







कुछ ग़ज़लें !


28 June 1999
ईक  धुंधली  सी  तस्वीर  यादों  में,
और  नुमायाँ  हो  गई  बरसातों  में |

जिसे  कभी  ज़ी  भर  के  नहीं देखा,
सिर्फ महसूस किया, उसे आँखों में |

दिन  भर  दिल  के  आसपास  रही,
दिल   में   उतर    गई    रातों   में ||

                                        -अर्पण  ----------


21 July 1999
तू   मेरी   तक़दीर   है,
रांझे     की    हीर    है |

मेरी  आँख  से बह रहा,
तेरी  आंख का  नीर है |

लगती  है  मीठी-मीठी,
प्यार  की कैसी पीर है |

बिना प्यार जो जी रहा,
सबसे  बड़ा  फ़कीर  है |

कर   रही    है    बातें |
तू   है  कि तस्वीर  है ||

                      -अर्पण 
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17 Sep. 99 -20 Feb.2000

नमाज़    पाँच    वक़्त |
इश्क      हर     वक़्त ||

तू       एक       लम्हा,

तेरी   याद   हर  वक़्त |

चाहते        हो      जीना,

मरना      हर      वक़्त |

इश्क़        इक       बार,

बेखुदी       हर     वक़्त |

सुबह,     दोपहर,   शाम,

तू         हर         वक़्त |

मेरी     हर    अभिलाषा,

तुझपे  अर्पण हर वक़्त ||

                        -अर्पण  ----------


24 Dec. 2000
रिश्तों    को    आजमाना |
मतलब  तकलीफें  पाना ||

प्यार        और      दोस्ती,

अजीब   सा  ताना - बाना |

वस्ल    मेरा   और  उनका,

है   एक    ख़्वाब    सुहाना |

भगवान    भी    होता    है,

प्यार   किया   तब   जाना |

हंस  के  गुजार हर   लम्हा,

ज़िन्दगी का क्या ठिकाना ||

                              -अर्पण  ----------


25 Nov. 1999
दुनिया  का  सबसे  बड़ा गम |
अपने  प्यार  का टूटता दम ||

मानते रहे मोहब्बत को खुदा,

बड़ी   गफ़लत   में   रहे   हम |

पैसा,  रुतबा   ही  सब - कुछ,

सामने  इनके  प्यार  है  कम |

झूठी - बनावटी  शान  में  रहे,

प्या  को  तौला  हमे  शा कम |

प्यार  का  अपने हश्र जो देखा,

हो  गई  पत्थर  आँख भी नम |

ठुकरा   कर   सादे  प्यार  को,

तरसोगे  तुम  जन्म - जन्म ||

                                   -अर्पण  ----------

4 Feb. 2000
यह    कैसी    मजबूरी   है |
पास   होकर   भी   दुरी  है ||

वस्ल - फ़राक  दोनों  बेसब्र,
इश्क़    दोधारी    छुरी    है |

एहसान   चार    कंधों    का,
आखिर  सबकी  मजबूरी है |

अदम   से   दहर   के   बीच,
पलक  झपकने की दूरी  है |

नाम तेरा लिखे बिना अर्पण,
तहरीर    मेरी    अधूरी    है ||
                     
                               -अर्पण  ----------
       

11 March 1999
तुम    कुछ   मत  बोलो |
सिर्फ   बंद   होंठ  खोलो ||

ख़ामोशी    से   करो  बातें,

लफ्जों  को   मत   तोलो |

मैं     हूँ    बेघर,    बंजारा,

दिल   के  दरवाज़े  खोलो |

आत्मा  दे  देना  बदले  में,

दिल    किसी  से  जो  लो |

पढ़  लूँ   तक़दीर   अपनी,

बंद     मुट्ठी   ज़रा   खोलो |

ज़िन्दगी ने जगाया  बहुत,

मौत कहती है अब सो लो ||

                                          -अर्पण 



रात के अँधेरे !

आज रात को अचानक मेरी नींद खुल गई और नींद खुलते ही जो आवाज़ सबसे पहले मेरे कानों को छुकर निकली वो थी रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ | ये आवाज़ मेरे कानों के इतने नजदीक महसूस हुई जैसे की रेलगाड़ी मेरे घर के बिल्कुल पीछे से जा रही है | और फिर मुझे महसूस हुआ कि जैसे मैं रेलवे स्टेशन की पथरीली ज़मीन पर काली चादर ओढ़ कर सो रहा हूँ |
इतनी दूर की आवाज़ को मेरे पास लाने वाले ज़रिये थे - " रात के अन्धेरें "

रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

चुपचाप, शांत, टकटकी बांधे,
सुबह का इंतजार करते रहते है |

कितना प्यार करते है, 
ये सुबह को,
मगर तब भी,
कितनी सदियाँ गुजर गई,
कायनात,
कई बार उजड़ कर बस गई,
कितने ही मौसम आये,
और चले गए,
मगर इनका मिलन....................

इतना प्यार है इनमे,
शायद इसीलिए ये मिल कर भीं मिल नहीं पाये ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

मगर मुझे तो हर रात,
नित नए फ़साने सुनाते है |

जिनसे मिलना, हक़ीकत में,
            कभी मुमकिन न हुआ,
उनसे मिलन के वसीले बन जाते है ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये किसी को कुछ नहीं कहते | 

अपनी ही दुनिया में खोये रहते है,
और सचमुच,
इनकी दुनिया है भी कितनी प्यारी,

चाँद-तारे हमसफ़र है इनके,
सारी रात आपस में,
जाने क्या-क्या,
बातें करते रहते है ,
मैंने कई बार कान लगाकर,
सुनने की कोशिश की,
मगर,
कुछ एक बातों के अलावा,
कुछ भी समझ नहीं आया,

ये आते है,
तो, इनके पीछे-पीछे,
सहर भी चली आती है |
गर ये अँधेरे न होते,
तो शायद हमें,
कभी सुबह भी नसीब नहीं होती ||

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रात के अन्धेरें,
सब कहते है,
ये काली स्याह तन्हाईयों के सिलसिले है,
ऐसे है,
जैसे की अनगिनत काली चादरें,
एक-के-बाद-एक खुलती चली जाती है|

लेकिन सच कहूँ,
मैं ये नहीं मानता,
मेरे लिए तो हर रात ये,
कहीं-न-कहीं से,
रौशनी की किरण ले आते है|
और उस रोशनी के उजाले में,
मैं अपनी ज़िन्दगी के अँधेरे टटोलता हूँ |

काली स्याह चादरों की,
न ख़त्म होने वाली दीवारों के बीच,
कोई दरार तलाशता हूँ,
जिसमे से गुजर कर,
मैं अपनी ज़िन्दगी की सुबह को पा सकूँ |
जाने ये सुबह कब मिलेगी ?

मगर,
मैं हारूँगा नहीं,
इसे तलाशता रहूँगा,
और फिर इस तलाश में,
मैं अकेला भी तो नहीं,
मेरे साथ है, साथी मेरे,
रात के अन्धेरें !

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रात के अँधेरे,
जब आते है,
दिल पर छा जाते है, कुछ गुनगुनाते है,
धुन नई बनाते है, फिर मुझे सुनाते है,
तभी अचानक,
सुनाते-सुनाते चुप हो जाते है,
जाने कहाँ खो जाते है,

मैं पूछता हूँ,
"कहाँ खो गए "
बोले-
हम कहाँ खो सकते है,
दुनिया के उजाले, अंधेरों में खोते है,
मगर हम अँधेरे खोने के लिए कहाँ जाएँ |
  
मैंने कहा - 
खो जाने के लिए,
फ़कत एक याद चाहिए |
अपने दिल में,
       उजाले की इक याद बसा लो |
काम है तो मुश्किल,
मगर मेरी मानो, ये भी कर डालो ||
  
                                       -अर्पण
                              (23 Nov. to 2 Dec. 1998 )






































कोहरा !

पिछले दो-तीन दिनों से कोहरा ( FOG ) बहुत छाया हुआ है, सारा-सारा दिन सूरज के दीदार को तरस जाते है | हर आँख, हर नज़र, बस इसी कोशिश में रहती है कि कोहरे को चीरकर उनकी नज़र सबसे पहले सूरज पर पड़े| 

कितनी अजीब बात है न ? ये दो ही दिन में, सूरज सबका महबूब बन गया लगता है | मगर जिसने इसे सबका महबूब बनाया, उसे तो लोग भूल ही गए, उसे तो सब कोस रहे है | शायद इसीलिए इसे दुनिया कहते है |

मगर घबरा मत दोस्त ! मैं हूँ ना ! तेरा हमदम, तेरा दोस्त | हाँ,  मैं कोहरा तो नहीं हूँ, मगर कोहरे की तरह सारी कायनात में बिखरा पड़ा हूँ | और उन्ही टुकड़ों को चुन-चुन कर अपनी इस तिजोरी में, अपनी इस डायरी में जमा कर रहा हूँ | 

अगर तुम चाहो तो तुम भी अपने इस बिखराव को समेट कर मेरी इस तिजोरी में रख सकते हो | जितने चाहो उतने ! और हाँ घबराना मत, ये मत सोचना की मैं दुनिया की तरह बेवफा निकलूंगा | तुम जब भी चाहोगे, तुम जब भी मांगोगे, तुम्हारी ये अमानत, मैं तुम्हे लौटा दूंगा या फिर तुम ख़ुद आकर, जब मर्जी, अपनी इस अमानत को , मेरी तिजोरी से निकाल लेना, क्योंकि मेरी इस तिजोरी का कोई ताला नहीं है |

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कह रहा है कोहरा,
आज का दिन है मेरा,
कोई किसी को न देखे,
मैं सबको, सब मुझे देखे |

पेड़ो पर, पहाड़ों पर,
घरों पर, तालाबों पर,
सब जगह मैं ही मैं,

ये अहंकार नहीं,
तुम्हारी बेवफाई का सर्द लावा है,
जो आज बड़े दिनों बाद निकला है |

बेशक तुम,
इस लावे से बचकर चलो,
कपड़ों की अनगिनत तहों में छुप जाओ,
चाहे मुझे हाथ भी मत दो,
अपने हाथों को जेबों में, 
बगल में छुपा कर रखो |

या गर्म सांसों से मुझे दुत्कार दो,
या आग की तपिश में जला डालो |

मुझे कोई परवाह नहीं,
मुझे किसी हाथ की जरुरत नहीं,

क्योंकि,
एक हाथ मेरे बिना कहे,
मुझे थामने के लिए बेताब है |
वो हाथ,
हर लम्हा, हर पल,
मुझे समेट रहा है,
मुझे चुन रहा है,
मुझे महसूस कर रहा है |

अपनी रूह पर, अपने मन पर |
अपने कागज-कलम के बदन पर ||


-अर्पण
(18-19 Dec. 1998 )










नया साल ! 1999


लो आ गया नया साल,
अपने साथ नये दिन, 
नयी रातें भी लाया होगा |

मगर मैं चाहता हूँ,
ये नया साल, पुराने दिनों से,
वो लम्हे उधर ले ले,
जब हम तुम मिले थे,
जब हमने अपने सुख-दुःख,
आपस में बांटे थे |

जब मैं तुम्हारी ख़ुशी में हंसा था,
जब तुम मेरे गम में रोये थे |

मैं इन्हें बीते हुए दिन नहीं कहूँगा, 
ये मेरे लिए ज़िन्दगी भरे अहसास है,

जिन्हें मैंने,
बंद आँखों के गाँव में,
अहसासों के नील आसमां पर,
दोस्ती के बादलों के ऊपर,
एहतियात से रख छोड़े है |

जब दिल चाहता है,
आँखें बंद करता हूँ,
इन्हें महसूस करता हूँ,
और जी लेता हूँ |

लेकिन फिर भी दुआ करता हूँ,
नए साल के नए दिन,
और नई रातों के पल,
जैसे-जैसे गुजरे,

हमारा प्यार भी बढ़ता जाये,
टूटे   से   भी   टूट   न   पाए ||

                                                    -अर्पण 
(ये कविता मैंने अपने सभी दोस्तों के लिए लिखी थी )









Friday 9 November 2012

कुदरत के ताने-बाने

एक तन्हा शाम में, मैं बैठा कुदरत के नज़ारे देख रहा था, देख रहा था कुदरत के ताने-बाने को | मेरे देखते ही देखते कुदरत ने आसमां से एक सांवली सलोनी दुल्हन को उतारा | नई नवेली दुल्हन की तरह वो भी बिल्कुल चुप थी मगर सुन्दर इतनी की उसका वजूद फिज़ा के कण-कण में फ़ैल गया| और धीरे-धीरे ये वजूद फैलता ही गया | फिर कुदरत ने सितारों से उसका आँचल सजाना शुरू किया और न जाने क्या सोचकर चाँद की एक बिंदी भी लगा दी, जिससे उसका रूप और निखर गया |

फिर शुरू हुआ दुल्हे का इंतज़ार !


सबसे पहले रश्मि ने आकर दुल्हन की मांग भरी और परिंदों ने दिल खोलकर मंगल गीत गाये | जैसे जैसे दूल्हा चेहरे पर तेज लिए पास आने लगा, न चाहते हुए भी दुल्हन धीरे धीरे शरमाने लगी | और एक पल ऐसा आया जब वो दुल्हे की नज़रों से बहुत दूर चली गयी | बेचारा दूल्हा ! सारा दिन अपनी दुल्हन के इंतज़ार में जलता रहा | फिर धीरे धीरे निराश होकर, कुदरत के चेहरे की और देखता हुआ वापिस जाने लगा | कुदरत उसी तरह चुपचाप नज़रे झुकाए .......


इधर दूल्हा वापिस मुड़ा और उधर दुल्हन फिर धीरे-धीरे फिजाँ में उतरने लगी| सिर्फ कुछ पलों के लिए दुल्हन का हाथ दुल्हे के हाथ में आया और मैंने फिजाँ में हल्की-हल्की ठंडक महसूस की| जाने ये ठंडी आह दुल्हे के मुंह से निकली थी या दुल्हन के मुंह से, मगर फिर मैंने उनके हाथ एक दुसरे से बिछड़ते देखे |


धीरे-धीरे फिर से कुदरत ने दुल्हन का श्रृंगार शुरू किया, फिर दुल्हे का इंतजार शुरू हुआ, फिर दुल्हन को शरमाना पड़ा, फिर दुल्हे को खाली हाथ जाना पड़ा, जाने कितनी सदियों से कुदरत यही ताना-बाना बुने जा रही है |


मगर कभी-कभी दुल्हन अपना बनाव-सिंगार उतार कर, माथे से चाँद की बिंदी हठाकर, सितारों भरा आँचल सर से उतारकर, ज़ी भर के रोती है | और कभी-कभी तो दूल्हा भी सारा-सारा दिन रोता है |


ये आँसू सभी देखते है, मैं भी, आप भी, यहाँ तक की कुदरत भी, मगर कोई कुछ नहीं कर सकता क्योंकि ये कुदरत के ताने-बाने है |


मगर हाँ ! एक दिन ऐसा हुआ की एक आँसूं इस कागज़ पर आ गिरा, जाने दुल्हन की आँख से निकला था या दुल्हे की आँख से, मगर, थोड़ी देर बाद जो मैंने देखा तो कागज़ पर ये तहरीर उतरी हुई थी |



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कुदरत  ने  बुना   जब   शब  का  ताना - बाना |
हमने   भी  छेड़  दिया,  तेरी  यादों  का  तराना ||

माथे  पर  शब  के   चाँद   की   बिंदी   लगा   दी,
सितारों   ने   शुरू   कर   दिया आँचल  सजाना |

सूरज की पहली किरण मांग में सिन्दूर भर गई,
पक्षियों   ने   शुरू  कर   दिया  शहनाई  बजाना |

सूरज  को  जब  आते  देखा,  सहरा  लगाये  हुए,
न   चाहते   हुए   भी, शब   को   पड़ा   शरमाना |

पहरों  जलता  रहा  दूल्हा, दुल्हन  के इंतजार में.,
आखिर  में  पड़ा,  बेचारे  को  खाली  हाथ जाना |

ये   कैसा   सजना   संवरना,   ये    कैसी    शादी,
एक   का   आना   होता   है,   दूसरे   का  जाना |

समझ  चुका  था   ज़िन्दगी   को,  मौत   को   भी,
नहीं समझ आया तो बस, कुदरत का ताना-बाना|

                                                            -अर्पण 



कुछ रिश्ते

" कुछ रिश्ते "

कुछ रिश्ते सिर्फ रिश्ते है,

कुछ रिश्ते सिर्फ रिसते है|

कुछ रिश्ते पहाड़ से अटल है,

कुछ रिश्ते नम आँख से सजल है|

कुछ रिश्ते कतरा कर निकल जाते है,

कुछ रिश्ते आँसू की तरह,
गम में भी, ख़ुशी में भी निकल आते है|

कुछ रिश्ते शमां की तरह,

सारी - सारी रात जलते है,
कुछ रिश्ते सुबह का ख़वाब बनकर, नींदों में मचलते है |

कुछ रिश्ते हाथ से,

रेत की तरह फिसल जाते है,
कुछ रिश्ते बिन बुलाये हर मोड़ पर टकराते है |

कुछ रिश्ते दूर होकर भी पास है,

जैसे किसी मुफ़लिस की आस है |

मगर,

तुझमे और मुझमे जाने कैसा रिश्ता है,
तुम अजनबी भी नही,
      मुझे जानते भी नहीं,
हर लम्हा मेरे साथ रहते हो,
     और मुझे पहचानते भी नहीं |

इस रिश्ते को क्या कहूँ,

       तुम ही कुछ बताओ,
या फिर चलो,
  ये फैसला वक़्त पर छोड़ दे |
वो चाहे जिधर,
         इस रिश्ते का मुंह मोड़ दे ||

                                                -अर्पण (19-22 Dec. 1998)











शेर-ओ-शायरी (2001)



आइना  - ए - दिल   टूटा  सही,
इसमें    कोई   सूरत   तो   है। 
ख़वाहिश  उनकी ख़वाब सही, 
ख़वाब मगर खूबसूरत तो है ।। 

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कुछ पाने की अभिलाषा,
कुछ    खोने    का    डर |
इन्हीं बातों में कट जायेगा,
जीवन     का       सफ़र ||

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24 Feb. 2001
लफ़्ज़ों पर किसका जोर चला है ज़ज्बातों के सिवा
लाईलाज़  मर्ज़ ठीक नहीं होते मुनाज़ातों के सिवा ।
एक  अर्सा  हुआ  है  उन्हें  देखे  उन्हें  सुने हुए,
सब कुछ भूल चूका हु कुछ एक बातों के  सिवा।। 
(on the day of Jassi's marriage)

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9 March 2001
सब  है  मेरे  अपने  खैरख्वाह |
मगर अपनापन है  जाने कहाँ ||


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13 June 2001
 एक तेरी याद, याद रही |
बाकी सब  भूल  गया ||

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रहूँगा मैं तुम्हारे साथ हमेशा परछाई बन कर |
तनहा जब होगीं, आ जाऊँगा तन्हाई बन कर ||

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कहीं  कोई  चुभ  न जाये कांटा तुम्हारे पैर में,
आसमां जैसे तेरे क़दमों में बिछना चाहता हूँ |
शिद्दत से रुका है आँसुओं का सैलाब आँखों में,
कोई  कंधा  मिले, सर रख के रोना चाहता हूँ ||

                                                                   -अर्पण
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शेर-ओ-शायरी (1999-2000)


1 Jan. 1999

खुदा  की  बनाई  कायनात  में,
क्या - क्या    खूब    नज़ारे  है |
जुदाई     में    मगर    आपकी,
फीके     ये     सब     सारे    है ||

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1st May 1999
जब  कोई पास नहीं  होता,
तब   तुम पास  होते  हो |
जब   तुम पास होते   हो,
कोई दूसरा पास नहीं होता ||

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1st May 1999
आबाद  करो  चाहे   बर्बाद   करो |
अपनी  मोहब्बत  से  आजाद करो ||

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1 Sep. 1999
ज़िन्दगी  कुछ  खफ़ा - खफ़ा है आजकल,
जो  दर्द  था,  वो  दवा    है   आजकल |
मेरी तो  कोई  बात  नहीं,  सह  लेता  हूँ,
मेरे दर्द को ही दर्द होने लगा है आजकल ||

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3 Sep. 1999
आप  जो  मेहरबां  हो  जाते,
जमीं पर आसमां  हो  जाते |
राह में  न  होते  गर  आप,
गुम  ये नामोनिशां हो जाते ||

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12 Sep. 1999
जब कभी दिल उदास होता है |
तू  कहीं आसपास  होता  है ||

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12 March 1999
जाने क्यूँ   ऐसा  होता   है,
ख़ुशी  में गम छिपा होता है |
मुस्कराहट  के  कटोरे    में,
आंसू का सैलाब भरा होता है ||

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1 Jan. 2000
फ़ैसला तुम को भूल जाने का,
एक नया ख़वाब है दीवाने का |
फिर  रहे  है  अब मारे- मारे,
बड़ा शौक था दिल लगाने का ||

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13 Jan. 2000
मिलकर  बिछुड़  गए प्यार  भरे  दिल,
है कितना आसान,सब कहते है मुश्किल |
अब  ढूंढने   पर   भी   नहीं   मिलते,
आँखें बंद  करके  जो  जाते  थे  मिल ||

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14 Jan. 2000
तुम्हारे पहलु में बैठकर रो  लिए,
थकी थी आँखें, कुछ देर सो लिए |
गर्द  थी  जमी  बीते दिनों  की,
चुनाचें अश्कों से नैन धो  लिए ||

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27 Jan. 2000
जो  जाकर  मिले तुमसे,
रोज़ नई कड़ी जोड़ता हूँ |
हर  रात शब्दों के महल,
बनाता  और  तोड़ता हूँ ||

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30 Jan. 2000
प्यार का इक मुजस्सम गुलदस्ता हो,
मंजिल हो  मेरी तुम  या  रस्ता हो |
अब तो  हो  चुका  सौदा  दिल  का,
महंगा    हो   चाहे   सस्ता    हो ||

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3 feb. 2000
राज -ए- इफ्शां  आँखों  से  बोलना  चाहिए,
दरवाजा पलकों का चुपके से खोलना चाहिए |
शायद दिल के किसी कोने में मिल जाये ख़ुशी,
गाहे - बगाहे  दिल  को   टटोलना   चाहिए ||

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5 March 2000
तेरे मेरे प्यार के दायरे हाथ से निकल गए है,
या तो तुम बदल गए हो या हम बदल गए है |
लोग  खफ़ा,  दोस्त  परेशां,  चाँद-सूरज बुझे-बुझे,
एक तुम  क्या बदल  गए  सब बदल गए है ||
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किसी  को  मोहब्बत में इनकार मिलता है,
किसी को ख़ुद का साया बेकरार मिलता है |
कितने  खुशनसीब  होतें  होगें   वो  लोग,
जिन्हें  प्यार  के  बदले प्यार मिलता है ||
                                                             
                                                                          -अर्पण