12 March 1998
आपकी याद फिर कैसा काम |
आज की शाम आपके नाम ||
मातम मनाएंगे खुशियों का,
छलकायेंगे ग़मों के जाम |
नहीं बनी तुम ज़मीं के लिए,
आपका तो है फ़लक मक़ाम |
लाखों का है दिल मगर,
प्यार में बिकता बिना दाम |
मिलन होता भी तो कैसे,
मैं ज़मीं पे, आप बलंद - बाम ||
यही तसल्ली मेरी, यही हुसूल,
आपकी आँख के हुए हमनाम ||
-अर्पण
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22 March 1998
मेरा मुकद्दर ही मेरा ना था |
आपसे हमें कोई गिला ना था ||
आप मिले तो मालूम हुआ,
मेरा दिल भी मेरा ना था |
आप छुपे थे, हाथ की लकीरों में,
आपको तलाशना हमें आया ना था |
चाहता था मैं, इज़हार करूँ, मगर,
हाल -ए-दिल ख़त में समाया ना था |
सजदा करने चल पड़े, कु-ए-यार को,
मन्दिर का रास्ता मालूम ना था ||
-अर्पण
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5 Aug. 1998
तुम एक ख़वाब हो माना |
फिर भी तुम्हे है पाना ||
आये तो हो ख़वाब बनकर,
ख़वाब जैसे, चले न जाना |
नींद में आकर सपने जगाकर,
ताउम्र वास्ते सुला ना जाना |
हक़ीकत का सामना न हो,
जाते-जाते कुछ ऐसा कर जाना |
बेखुदी की हालत में मेरी,
ख़ुद आकर ख़ुदा बन जाना |
-अर्पण
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11 Oct. 1998
जब कुछ भी नहीं था |
सोचता हूँ तभी सही था ||
था उसके पास सब - कुछ,
फ़कत वो ही नहीं था |
होसलां आँखों में लेकर चला,
आसमां, ज़मीं था |
मुद्दत बाद याद् आयी उनकी,
माने, वो गया नहीं था |
देखा था मैंने चाँद को,
कैसे कह दूँ, तू नहीं था |
अब समेटने से क्या फायदा,
जब मैं टुटा, तू वहीँ था ||
-अर्पण
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1 Nov. 1998
वो सुबह का तारा है |
कहाँ नसीब हमारा है ||
चमकता है अंधेरों में,
उजालों का मारा है |
झील में अकेला है,
शायद मेरा शिकारा है |
प्यार में यही लगता रहा,
बस कुछ दूर किनारा है |
दिल से निकले लफ्ज़,
नदिया की धारा है |
जुदाई में थी, उनकी ख़ुशी,
जीतकर "अर्पण" हारा है ||
-अर्पण