Saturday 10 November 2012

कोहरा !

पिछले दो-तीन दिनों से कोहरा ( FOG ) बहुत छाया हुआ है, सारा-सारा दिन सूरज के दीदार को तरस जाते है | हर आँख, हर नज़र, बस इसी कोशिश में रहती है कि कोहरे को चीरकर उनकी नज़र सबसे पहले सूरज पर पड़े| 

कितनी अजीब बात है न ? ये दो ही दिन में, सूरज सबका महबूब बन गया लगता है | मगर जिसने इसे सबका महबूब बनाया, उसे तो लोग भूल ही गए, उसे तो सब कोस रहे है | शायद इसीलिए इसे दुनिया कहते है |

मगर घबरा मत दोस्त ! मैं हूँ ना ! तेरा हमदम, तेरा दोस्त | हाँ,  मैं कोहरा तो नहीं हूँ, मगर कोहरे की तरह सारी कायनात में बिखरा पड़ा हूँ | और उन्ही टुकड़ों को चुन-चुन कर अपनी इस तिजोरी में, अपनी इस डायरी में जमा कर रहा हूँ | 

अगर तुम चाहो तो तुम भी अपने इस बिखराव को समेट कर मेरी इस तिजोरी में रख सकते हो | जितने चाहो उतने ! और हाँ घबराना मत, ये मत सोचना की मैं दुनिया की तरह बेवफा निकलूंगा | तुम जब भी चाहोगे, तुम जब भी मांगोगे, तुम्हारी ये अमानत, मैं तुम्हे लौटा दूंगा या फिर तुम ख़ुद आकर, जब मर्जी, अपनी इस अमानत को , मेरी तिजोरी से निकाल लेना, क्योंकि मेरी इस तिजोरी का कोई ताला नहीं है |

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कह रहा है कोहरा,
आज का दिन है मेरा,
कोई किसी को न देखे,
मैं सबको, सब मुझे देखे |

पेड़ो पर, पहाड़ों पर,
घरों पर, तालाबों पर,
सब जगह मैं ही मैं,

ये अहंकार नहीं,
तुम्हारी बेवफाई का सर्द लावा है,
जो आज बड़े दिनों बाद निकला है |

बेशक तुम,
इस लावे से बचकर चलो,
कपड़ों की अनगिनत तहों में छुप जाओ,
चाहे मुझे हाथ भी मत दो,
अपने हाथों को जेबों में, 
बगल में छुपा कर रखो |

या गर्म सांसों से मुझे दुत्कार दो,
या आग की तपिश में जला डालो |

मुझे कोई परवाह नहीं,
मुझे किसी हाथ की जरुरत नहीं,

क्योंकि,
एक हाथ मेरे बिना कहे,
मुझे थामने के लिए बेताब है |
वो हाथ,
हर लम्हा, हर पल,
मुझे समेट रहा है,
मुझे चुन रहा है,
मुझे महसूस कर रहा है |

अपनी रूह पर, अपने मन पर |
अपने कागज-कलम के बदन पर ||


-अर्पण
(18-19 Dec. 1998 )










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