16 Aug 1998
इंसान, इंसान को मारता रहा |
शैतान खड़ा तमाशा देखता रहा ||
मन्दिर - मस्जिद को लेकर लड़ मरे,
धर्म हर पल बदनाम होता रहा |
परिवार के रिश्ते निभा न सका,
भगवान से नाता जोड़ता रहा |
अफवाहों में उड़ गया, ज्यों तिनका,
अपने ही भाइयों का गला काटता रहा |
इंसान मौत से डरता होता था कभी,
अब मौत को इंसाने-खौफ सताता रहा |
धर्म के नाम पर रूपये लुटा दिए,
बेसहारों को सहारा देने से कतराता रहा |
जिस माँ-बाप ने पाला उसको उम्र भर,
दो जून रोटी वास्ते उन्हें तरसाता रहा ||
-अर्पण
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