एक पल में कितने रूप बदलते है लोग यहाँ |
नक़ाब पर नक़ाब ओढ़े रहते है लोग यहाँ ||
निकलता है प्यार बाँटने को जो भी शख्स,
नफरत भरी मुस्कान से स्वागत करते है लोग यहाँ |
मोहब्बत इक नियामत-ए-ख़ुदा* है, सब कहते है,
आशिकों को फिर भी दीवाना कहते है लोग यहाँ |
झांक नहीं पाए, ठीक से अभी, दिल में अपने,
बात मगर, चाँद पर रहने की करते है लोग यहाँ |
दो सच्चे प्रेमी जिन्हें गुनगुना भी नही सकते,
जीस्त-ए-साज़* पर ऐसे नग्मे गाते है लोग यहाँ |
जो वहशीपन छुपा है इनके अपने दिल में अर्पण,
वैसा ही अक्स औरो में देखते है लोग यहाँ ||
-अर्पण (14 फरवरी 1998)
नियामत-ए-ख़ुदा = भगवान का तोहफा
जीस्त-ए-साज़ = ज़िन्दगी का साज़
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